मुझ पे जो गुज़र गई उसका , कोई बयां नहीं,
लगता है सर पे मेरे, मेरा आसमान नहीं..
दिल के ग़म से जल कर बस राख हो गया ,
इस में न शोले ढूंढे , इस मे धुआं नहीं....
खामोशियाँ का तूफ़ान थामा हुआ है मैंने ,
जिंदा हूँ इस तरह की , मुँह में जुबान नहीं...
इज़हार अगर करू मैं अपने दिल का दर्द,
कायदे से मानिये तो.... आह या दुहाई नहीं,
वो झूट बोल कर उसे, सच मानने लगे,
शर्मिंदगी के चेहरे पर , नामो निशाँ नहीं,
मेरा तो हाल है,वो किसी का कभी न हो....
बहता है खून रगों में , मगर दिल रोया नहीं...
इतना बहुत है सर पे , चाहत हो किसी के दोस्त ,
कितने है लोग जिनका , अपना माकन नहीं....
जीसे मैं अपने अपने दिल की कुछ बात कह सकूँ ,
गुमनाम इस शहर में , कोई भेद जानने वाले
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें